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 2 मर्दानगी -- पुरुष प्रकृति

 

  सामाजिक मर्दानगी बनाम प्राकृतिक मर्दानगी 

 

क तो वह मर्दानगी है जो कि कुदरत ने हमें प्रदान की है। यह हमारे भीतर पैदायशी होती है। यही प्राकृतिक मर्दानगी या पौरुषत्व है।

परंतु, समाज ने एक ऐसा सामाजिक तंत्र  बनाया है जहां वह इस प्राकृतिक मर्दानगी को मान्यता नहीं देता। इसके बदले उसने मर्दानगी का अपना ही एक नकली रूप तैयार किया है। हम इस नकली मर्दानगी को सामाजिक मर्दानगी का नाम देंगे। यह मर्दानगी कुदरती रूप से नहीं मिलती बल्कि समाज द्वारा प्रदान की जाती है। इस तंत्र  के अंतर्गत, एक पुरुष को तब तक 'पुरुष' के रूप में स्वीकार नहीं किया जाता जब तक कि वह समाज द्वारा तय किये कुछ शर्तों को पूरा ना कर दे। इन शर्तों को हम पुरुषों की सामाजिक और सेक्स संबंधी भूमिकाऐं कहते हैं।

यह तंत्र  पुरुषों के व्यवहार -- खासतौर पर यौन व्यवहार को नियंत्रित करने के लिये बनाया गया है। पर इससे पुरुषों का शोषण होता है। और उन्हें काफी नुकसान पहुचता है। इससे समाज को कोई फायदा पहुँचता हो यह कहना मुश्किल है। इससे केवल कुछ चंद लोगों को बाकियों के उपर असंख्य और नाजायज ताकत मिलती है। और पुरुषों को इस सामाजिक मर्दानगी के बदले जो करने के लिये बाध्य किया जाता है वह अक्सर उनके प्राकृतिक मर्दानगी के विपरीत होता है -- बल्कि कभी-कभी तो यह स्त्रीत्व के ज़्यादा करीब होता है। और कभी -कभी यह अति नकारात्मक मर्दानगी होती है।

अगर हम सच्चे पुरुष बनना चाहते हैं तो हमारा लक्ष्य 'प्राकृतिक मर्दानगी' होना चाहिये, ना ताकि यह झूठी सामाजिक मर्दानगी। क्योंकि केवल प्राकृतिक मर्दानगी ही असली है।

पुरुष को खुश और स्वस्थ जीवन व्यतीत करने के लिये अपनी कुदरती मर्दानगी से जुडना जरूरी है।

 

अपनी प्राकृतिक मर्दानगी पुनः प्राप्त करना

हालांकि हम इस प्राकृतिक मर्दानगी के साथ ही पैदा होते हैं, शुरू-शुरू में यह अविकसित अवस्था मे होता है -- किसी बीज की तरह। इसे सींचने और विकसित करने की जरूरत होती है। खासतौर पर किशोरावस्था/ युवावस्था के दौरान। इसके पनपने के लिये इसे बाहर निकालने की जरूरत होती है। हम देखेंगे कि कैसे समाज के दबाव में आकर हम इस प्राकृतिक मर्दानगी को अपने ही भीतर, गहरी कहीं कैद कर देते हैं। जहां से यह कभी खुली हवा में सांस नहीं ले पाती। अतः यह या तो अविकसित और बीमार हो जाती है या एक नकारात्मक और अस्वस्थ रूप में विकसित होती है जो खुद के लिये और दूसरों के लिये नुकसानदायक होती है।

जहां प्राकृतिक मर्दानगी हमें आंतरिक शक्ति देती है और हमें आत्म-निर्भर बनाती है वहीं सामाजिक मर्दानगी हमें समाज पर आश्रित बना देती है।

अतः इस किताब का लक्ष्य है लड़कों को उनकी प्राकृतिक मर्दानगी को मुक्त् करके उसका विकास करने और संवारने में उनकी मदद करना। इस प्रक्रिया को 'अपनी मर्दानगी पुनः प्राप्त करना' कहते हैं।

 

  पुरुषों की सामाजिक भूमिकाऐ

''मर्दों को रोना शोभा नहीं देता''

''क्या लड़कियों की तरह शर्मा रहे हो?''

म सभी बचपन से यह बातें सुनते आये हैं। बचपन से ही हमारे मन में धीरे-धीरे बिठा दिया जाता है कि एक पुरुष होने के नाते हमें कैसा व्यवहार करना है और कैसा नहीं करना। हमें क्या बनना है, हमें क्या पहनना है, हमारे शौक क्या-क्या होने चाहिये, हमारे विचार क्या होने चाहिये, हमारा आचरण कैसा हो -- ये सभी संदेश हमें हमारे आसपास के वातावरण से लगातार मिलते रहते हैं।

आइये उन कुछ बातों की लिस्ट बनाते हैं जो कि हमारा समाज पुरुषों से अपेक्षा करता है:

  • पुरुषों को ताकतवर, आक्रामक, लम्बा-चौडा, हैंडसम/ स्मार्ट, हिम्मती, कठोर, भावनाहीन, असंवेदनशील, निर्भय और व्यवहारिक होना चाहिये। उन्हें झुक्ने वाला, कमजोर या कोमल नहीं होना चाहिये।

  • पुरुषों में कोई भी कमी या कमजोरियां नहीं होनी चाहियें। उन्हें अपनी भावनाऐं नहीं दिखानी चाहिये क्योंकि इससे वे कमजोर नजर आते हैं।

  • उन्हें हमेशा लड़ने के लिये तैयार रहना चाहिये। उन्हें लड़ाई-झगडे से कभी पीछे नहीं हटना चाहिये। उन्हें ऐसा बनना चाहिये कि दूसरे उनसे डरें। उन्हें अपने परिवार को सुरक्षा देने के लिये हमेशा तैयार रहना चाहिये और कैसे भी हो उसके लिये पैसा कमा कर लाना चाहिये।

  • एक 'असली' मर्द कहलाने के लिये उसमें सिगरेट-शराब पीने, तेज गाडी चलाने, लड़कियों के पीछे भागने और खेल-कूद में रुचि लेना जरूरी है। उनमें लड़कियों के कहलाये जाने वाले शौक, जैसे सिलाई - कढ़ाई, साज-श्रंगार, नृत्य आदि नहीं होने चाहियें।

  • एक असली पुरुष में सेक्स की ताकत होनी चाहिये (हम इस भूमिका को और गहराई में दूसरे भाग में पढ़ेंगे)

हमें और भी कई संकेत मिलते हैं, जैसे:

  • मर्द रोते नहीं हैं।

  • मर्दों को दर्द नहीं होता।

  • मर्द शर्माते नहीं हैं।

  • मर्द बीमार नहीं पडते

  • मर्द सुंदर नहीं होते, आदि।

पुरुषों की इन सामाजिक भूमिकाओं को हम सामाजिक मर्दानगी की भूमिकाऐं भी कहते हैं।

यह भूमिकाऐं हमें मुंह-जबानी व दूसरे कई माध्यमों से जताई जाती हैं जो इतना खुल कर नहीं होतीं। इन भूमिकाओं की ट्रेनिंग हमारे अंदर बचपन से ही शुरू कर दी जाती है।

क्या आप बता सकते हैं कि ये भूमिकाऐं या गुण पुरुषों के लिये कुदरती हैं या ये हमारे समाज ने निर्धारित कर के हमारे उपर थोपे हैं?

समाज हमें बचपन से यही सिखाता है कि यह सारी भूमिकाऐं कुदरत ने ही पुरुषों के लिये बना कर भेजी हैं।

पर जब हम अपनी आसपास की जिंदगी में थोड़े गौर से देखते हैं तो हमें पुरुषों में इन गुणों के विपरीत कई उदाहरण देखने को मिल जायेंगे। पुरुष भी अक्सर भावनात्मक होते हैं। सारे पुरुष ताकतवर नहीं होते। सारे पुरुष आक्रामक नहीं होते। कई पुरुष बहुत सुंदर होते हैं। पुरुष अक्सर अपने रूप-रंग पर बहुत ध्यान देते हैं। अक्सर पुरुष भी युवा दिखना चाहते हैं और अपनी उम्र छिपाते हैं। कई पुरुष स्त्रियों से भी अच्छा खाना बनाते हैं। कई पुरुष बहुत कलात्मक होते हैं और ऐसी कई चीजें औरतों से भी अच्छी करते हैं जो पुरुषों की चीजें समझी ही नहीं जातीं।

पर इस सवाल का सही जवाब हमें अपने ही अंदर मिलेगा।

हम सब रोते हैं -- चाहे अकेले में ही सही। हम सब में भावनाऐं हैं और हम उन्हें महसूस भी करते हैं। हम हमेशा आक्रामक नहीं होते। हमें दबना भी पडता है। हमें डर भी लगता है। हम बीमार भी पडते हैं और हमें दर्द भी होता है। हम भी किसी-किसी परस्थितिओं में शर्मीले हो जाते हैं। हम भी आर्कषक और युवा दिखने के लिये कई प्रयत्न करते हैं।

अगर हम थोडा गौर से देखें और समझें तो पहचान जायेंगे कि हम सब चाहे पुरुष हों या स्त्री, हममें स्त्री और पुरुष कहलाने वाले सभी गुण विद्यमान हैं। समाज के दबाव में आकर हम उन सभी गुणों को दबा देते हैं जो कि पुरुषों के लिये सही नहीं माने जाते। साथ ही हम उन सभी गुणों को ना होते हुये भी दिखाने की कोशिश करते हैं जो हममें ना भी हों पर पुरुषों के लिये जरूरी समझे जाते हैं।

पुरुषों और स्त्रियों में काफी भिन्नताऐं भी हैं पर उन भिन्नताओं का इन सामाजिक भूमिकाओं से कोई लेना देना नहीं है।

 

   पुरुषों की भूमिकायें प्रकृति द्वारा नहीं बल्कि समाज द्वारा निर्धारित की गयी हैं!  
 

ये भूमिकाऐं पुरुषों को कैसे नुकसान पहुँचाती हैं?

क्या आप ने कभी सोचा है कि अगर आप पर कमाने का इतना जबरदस्त दबाव ना होता तो कैसा होता? क्या आपके माता पिता ने आपपर कभी विज्ञान या कौर्मस विषय लेने का दबाव डाला है ताकि आप जल्दी से जल्दी व ज़्यादा से ज़्यादा कमा पायें, जबकि आपकी रुचि कला या लिटरेचर पढ़ने मे थी?

पुरुषों की सामाजिक व सेक्स संबंधी भूमिकाऐं उनके ऊपर लगातार ऐसा जबरदस्त दबाव बनाती हैं, जो पुरुषों को सुनिश्चित किये गये कडे मापदंडों के अंतर्गत जीने, सोचने व व्यवहार करने के लिये मजबूर करती हैं। अक्सर इन दबावों से बच पाना नामुमकिन होता है और इन्हें तोडने पर कठोर परिणामों से गुजरना पडता है।

हर एक पुरुष के पास ऐसे गुण, विशेषताऐं, जरूरतें व भावनाऐं होती हैं जिसे समाज उनके लिये उचित नहीं समझता। आदमी इन गुणों आदि को या तो दबा देता है या फिर उन्हें समाज से छिप कर और शर्मिंदगी के साथ व्यक्त करता है।

आप क्या करेंगे अगर आप घर में बर्तन साफ कर रहे हों और तभी आप के दोस्त आ जाऐं तो? क्या आप तुरंत हाथ पोंछ कर इस बात को छिपाने की कोशिश नहीं करेंगे? नहीं तो दूसरे आप का मजाक उडा सकते हैं कि आप औरतों का काम कर रहे हैं।

यह तो एक बहुत ही छोटा उदाहरण है।

पुरुषों की सामाजिक भूमिकाऐं उनके स्वभाव, उनके गुण, उनके विचार और उनके व्यवहार को नुकसानदायक और संकीर्ण दायरों में बांध कर उन्हें नुकसान पहुँचाती हैं। इनकी वजह से पुरुष अपनी पूर्ण प्राकृतिक क्षमता के मुताबिक विकास नहीं कर पाते। उदाहरण के लिये आदमी अक्सर अपने उन गुणों और विशेषताओं को उभारते नहीं हैं जिन्हें समाज पुरुषों के लिये ठीक नहीं मानता।

केस स्टडी
मितेश की संगीत में काफी रुचि है और अगर उसे सही शिक्षा व बढ़ावा मिले तो वह अच्छा संगीतज्ञ बन सकता है।
मितेश की कक्षा में एक जनाना लड़का है जिसका नाम अनिल है। क्लास के सभी लड़के उसका मजाक उडाते हैं। मितेश भी।

जब मितेश 10वीं पास कर के 11वीं में आया तो उसे संगीत पढ़ने का अच्छा मौका मिला। अतिरिक्त् विषय के रूप में अव वह संगीत विषय ले सकता था। पर संयोगवश जब वह संगीत की क्लास के बारे में पता करने गया तो उसने पाया कि उस क्लास में अब तक केवल एक लड़का था, और वह था अनिल।

बाकी सब ने उस रोज अनिल का यह कह कर बहुत मजाक उडाया कि उसने एक लड़कियों वाला विषय चुना है। यह सब देख कर मितेश की हिम्मत नहीं हुई कि वह भी संगीत क्लास में भर्ती हो जाये। वह नहीं चाहता था कि बाकी बच्चे उसकी तुलना अनिल से करें। इसी वजह से उसने बहुत मन मार कर इलैक्ट्रौनिक्स की क्लास ज्वाइन कर ली।

अधिकतर मध्यमवर्गीय परिवारों में लड़कों को अपने गुणों और रचनात्मकता को उभारने का मौका नहीं मिल पाता क्योंकि उनपर जल्द से जल्द अपनी पढ़ाई पूरी कर के पैसे कमाने का बोझ होता है। वो तो अपनी पसंद का विषय भी नहीं पढ़ पाते क्योंकि उनपर उन विषयों को पढ़ने का दबाव डाला जाता है जिनसे ज़्यादा से ज़्यादा पैसों वाली नौकरी आसानी से मिल पाये। लड़कों के लिये सबसे उपयुक्त् विषय 'विज्ञान' समझा जाता है। उसके बाद 'कौर्मस' का नंबर है जबकि उनके लिये 'आर्टस' का विषय  बिल्कुल भी उपयुक्त् नहीं समझा जाता।

लड़कों से जो शौक रखने की उम्मीद की जाती है उनसे भी उनके जीवन पर बुरा असर पडता है। तेज गाडी चलाना, सिगरेट शराब पीना, लड़ाई-झगडे करना, लड़कियाँ छेडना, उनसे सेक्स करना, आदि -- इन सब से लड़कों की सेहत व सुरक्षा पर बुरा असर पडता है। पर लड़को को यह करना अच्छा लगता है क्योंकि इससे वे 'मर्द' कहलाये जाते हैं।

सामाजिक भूमिकाऐं, हर स्थिति के हिसाब से व्यवहार करने की पुरुषों की क्षमता पर असर डालती हैं। इन्होंने पहले से ही यह निश्चित कर दिया हैं कि पुरुषों से कैसे व्यवहार की उम्मीद की जाती है। उदाहरण के लिये अगर लड़के से ताकत में बडा कोई आदमी भी उसे ललकारता है और उसकी समझ उसे यही जताती है कि इस समय पीछे हटना या इस स्थिति से निपटने के लिये कोई और रास्ता अपनाना ही उचित होगा, तो भी उसे आक्रामकता ही दिखानी पडती है।

पुरुषों को इस तरह बना दिया जाता है कि वे अपने जीवन के मुद्दों को आक्रामकता व लड़ाई-झगडे से ही निपटाते हैं। वे अपनी कोमलता व रचनात्मकता को दबा देते हैं ताकि वे कठोर बन कर 'मर्द' का दर्ज़ा हासिल कर पायें। पर पुरुषों के लिये भी जरूरी है कि वे कभी-कभी अपनी जिम्मेदारियों और चिंताओं को भूल कर कुछ क्षण स्वछंद उन्मुक्त्ता के भी बिता पाऐं। बिना इसके लिये शर्मिंदगी उठाये। उनके लिये भी कभी-कभी अपने अंदर के बच्चे को बाहर निकालना जरूरी होता है।

सामाजिक भूमिकाओं के चलते पुरुष अपने कुदरती स्वभाव, अपनी कुदरती जरूरतों और ईच्छाओं का दमन करते हैं। ये भूमिकाऐं उनसे वह सब करने की अपेक्षा करती हैं जो कि बिना कुदरत से छेडछाड किये मुमकिन नहीं है। उनसे हमेशा-हमेशा ताकतवर, गैरभावुक, व व्यवहारिक होने की अपेक्षा की जाती है।

 

भावनाऐं दबाने का बोझ/ दबाव

क्या आपने कभी सोचा है कि अगर आप के ऊपर हमेशा ताकतवर बनने का दबाव ना होता तो यों अकेले में आंसू बहाने की बजाय आप किसी ऐसे व्यक्ति के कंधों पर सिर रख कर रो सकते थे जो कि आप को सहारा दे पाता!

पुरुष भी इंसान होते हैं और उनकी भी भावनाऐं होती हैं। उन्हें भी दर्द होता है। उन्हें भी जरूरत होती है कि जो उनके नजदीकी हों उनके सामने रो कर वे अपने दुख-दर्द बांट पायें। उन्हें भी प्यार करने व प्यार पाने की जरूरत होती है।

पुरुषों की सामाजिक भूमिकाओं में पुरुषों की भावनाओं की कोई जगह नहीं है। अगर पुरुष अपनी भावनाओं की सुनने लगें तो वे कभी भी इन सामाजिक भूमिकाओं के आगे आत्म-समर्पण नहीं करेंगे। क्योंकि भावनाओं में बहुत ताकत होती है। और ये भूमिकाऐं उनसे अक्सर उनकी भावनाओं के विपरीत व्यवहार करने को कहती हैं। इसी से बचने के लिये पुरुषों को इन्हें दबाने के लिये प्रशिक्षित किया जाता है।

हमारे जीवन में भावनाऐं बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं, क्योंकि वे ही हमारे अंदरूनी आवाज़ से हमारा संर्पक हैं। जब लड़के अपनी भावनाऐं दबाते हैं तो उनका अपनी अंदरूनी आवाज़ से संर्पक टूट जाता है। हमारी अंदरूनी आवाज़ हमारे प्राकृतिक स्वभाव की आवाज़ है, हमारे अंदर की प्रकृति की आवाज़ है, हमारी मूलभूत जरूरतों और इच्छाओं की आवाज़ है। अपनी भावनाओं से टूटने की वजह से आज पुरुष यह नहीं जानते कि उनका अंर्तमन सचमुच क्या चाहता है। इसी वजह से वे कभी सुखी नहीं रह पाते।

आदमी बचपन से ही अपनी भावनाओं व अपनी अंदरूनी आवाज़ का तिरस्कार करना सीख जाते हैं। बल्कि वे इनसे घबराते हैं। अपनी अंदरूनी भावनाओं या ईच्छाओं का अनुसरण करने पर उन्हें हमेशा दूसरों की उपेक्षा, डांट या उपहास का सामना करना पडता है।

उदाहरण के लिये जब वे आहत होते हैं और रोते हैं तो उनसे कहा जाता है कि लड़कों को रोना शोभा नहीं देता।

या जब उन्हें डर लगता है तो उन्हें बताया जाता है कि लड़कों को कभी डरना नहीं चाहिये।

या ये कि लड़कों को डांस नहीं करना चाहिये।

या फिर उन्हें गुडियों को हाथ भी नहीं लगाना चाहिये।

ऐसी बातें लड़कों के मानसिकता को भीतर तक प्रभावित करती हैं और वह इन सभी कार्यों को अशोभनीय मानने लगता है। वह उन भावनाओं से घृणा करने लगते हैं जो उन्हं यह सब करने को कहती हैं। और धीरे-धीरे वह भावनाओं से पूरी तरह से कट कर केवल दिमाग से सोचने वाले रोबौट बन जाते हैं -- या फिर उस कुत्ते की तरह जो जैसा सिखाया हो वैसा ही करता रहता है। वे अपने जीवन के सभी छोटे-बडे फैसलों में अपनी दिल की बात नहीं सुनते, केवल दिमाग से ही काम लेते हैं।

लंबे समय तक अपनी भावनाओं को दबाने की वजह से आदमी उन्हें खो देते हैं। उनकी अपने ही भावनाओं और भावनात्मक जरूरतों को पहचानने और व्यक्त करने की शक्ति छिन जाती है। यह एक भयावह स्थिति है। इसी वजह से आदमी जिन लोगों से संबंधित हैं उनकी भावनात्मक जरूरतें पूरी करने में असमर्थ होते हैं।

क्योंकि आदमी इतनी क्रूरता से अपनी भावनाओं को कुचलते हैं वे असंवेदनशील व पत्थरदिल हो जाते हैं। जाहिर है वे दूसरों की भावनाओं की भी परवाह नहीं करते।

आदमी समाज की अपेक्षाओं में अपने आप को ढालने के लिये अपने अंदर के असली पुरुष को कुर्बान कर देते हैं। पर वे अपनी सभी भावनाऐं और जरूरतें हमेशा के लिये दबा कर नहीं रख सकते। क्योंकि ये उन्हें अंदर ही अंदर भीषण दर्द देती हैं। जब किसी भावना को दबाने का दर्द आदमी की बर्दाश्त से बाहर हो जाता है तो वह उन्हें दुनिया की नजर से छिप कर, चुपके-चुपके, ग्लानि और शर्म के साथ व्यक्त करने की कोशिश करता है। पर बाहर से वह अपनी पहली वाली छवि बनाए रखता है। इसे दोहरी जिंदगी जीना कहते हैं। इससे आदमी का आत्म-सम्मान गिरता है और यह आदमी को तनावग्रस्त भी करता है।

ताकतवर दिखने का दबाव

हमेशा ताकतवर दिखने के दबाव के चलते लड़के यह सीख जाते हैं कि दूसरों को अपनी कमजोरियाँ या कमियाँ कभी भी नहीं बतानी चाहिये। वह हार या अस्वीकृत होना बर्दाश्त नहीं कर पाते क्योंकि इससे वह कमजोर दिखने लगते हैं। अगर वह गलत हैं तो भी वह यह बात स्वीकार नहीं कर पाते। उदाहरण के लिये अधिकतर लड़कों के लिये 'सारी' कहना बहुत मुश्किल होता है।

लड़के ऐसा दिखाते हैं जैसे वह पैदाइशी 'सम्पूर्ण' हैं। वे ऐसा दिखाना चाहते हैं कि उनमें शुरू से ही वे सभी गुण हैं जो कि मर्दानगी की भूमिकाऐं पुरुषों से चाहती हैं। ये मर्दानगी की भूमिकाऐं उनमें अहम् की भावना को उभारती हैं।

हमेशा ताकतवर, संपूर्ण और बिना कमियों के दिखने के इस दबाव के कारण आदमियों की जिंदगी काफी तनावपूर्ण हो जाती है।

इसका असर यह भी होता है कि पुरुष अपनी 'असली' या 'अंदरूनी' समस्याओं के लिये कोई मदद या मार्गदर्शन नहीं मांग पाते। इन मुद्दों से उन्हें स्वयं ही निपटना पडता है। गलतियाँ कर-कर के सीखना होता है। इसी वजह से लड़के अपनी जवानी में बहुत सी ऐसी गलतियाँ करते हैं जिसके लिये वे जीवन भर पछताते हैं। ऐसी गलतियाँ जिन्हें रोका जा सकता था अगर लड़के किसी से बात कर पाते तो।

साथ ही वे अपनी अंदरूनी समस्याऐं और दुख-दर्द बांट कर दिल हल्का नहीं कर पाते जिससे उनके तनाव और दर्द कई गुणा बढ़ जाते हैं।

सामाजिक मर्दानगी की दौड की वजह से पुरुषों के लिये अपनी जरा सी कमी भी इज़हार करना महंगा पड सकता है। हमेशा ताकतवर और सामाजिक मर्दानगी के अनुसार सम्पूर्ण नजर आने के लिये वे तरह-तरह के छलावे करते हैं। झूठ बुनते हैं और नकाब पहनते हैं। पर इससे उनकी जिंदगी एक झूठ बन कर रह जाती है और वे तनावग्रस्त रहते हैं। जो नकाब वे पहनते हैं वे उनका दम घोंट सकती हैं और उनका जीवन दर्दनाक बना सकती हैं।

अपने अहम के कारण लड़के गलती होने पर भी माफ़ी नहीं मांग सकते उनके लिये सौरी कहना बहुत ही मुश्किल होता है

 

तनावग्रस्त व नकली जीवन जीने का बोझ/ दबाव

इन सभी दबावों की वजह से पुरुषों के अंदर, उनके पूरे जीवन के दौरान, दर्द, दबी हुई भावनाओं और अधूरी इच्छाओं की परत दर परत जमती जाती है। इनसे उपजा तनाव सारी उम्र इकठ्ठा होता रहता है और पुरुषों को कई तरह की बीमारियों का शिकार बनाता है -- इनमें दिल के दौरे जैसी जान लेवा बीमारियाँ भी हैं। इन्हीं तनावों के चलते पुरुष अपनी उम्र से बहुत पहले ही बूढ़े लगने लगते हैं।

पुरुष दिखावटी जीवन जीने के इतने आदी हो जाते हैं कि वे अपनी अंदरूनी भावनाओं, जरूरतों और इच्छाओं के बारे में जो भी कहते हैं वह शायद ही कभी सच होता है। उदाहरण के लिये अगर वह किसी से प्यार करते हैं तो भी मर्दानगी की कुछ भूमिकाओं के चलते उन्हें व्यक्त नहीं कर पाते। वहीं जब वह किसी से प्यार ना भी करते हों तो मर्दानगी की दूसरी भूमिकाओं के चलते उन्हें झूठ बोलना पड सकता है। आदमी इसी तरह जीवन के हर पहलू में एक झूठी जिंदगी जीने के आदी हो जाते हैं। वे इस बात के प्रति बहुत सजग हो जाते हैं कि वे क्या कहते हैं। वे केवल वही कहते हैं जो मर्दानगी की भूमिकाओं के अनुरूप हो।

अक्सर पुरुष जो नहीं कहते वह उनके बारे में बहुत कुछ कह जाता है। अर्थात पुरुष जब कुछ ऐसा कहना चाहते हैं जो वे अपनी मर्दानगी की भूमिकाओं की वजह से नहीं कह पाते तो वे उसे अपनी चुप्पी के जरिये कहने की कोशिश करते हैं। वे अपनी कई अंदरूनी भावनाओं और इच्छाओं को दबे हुये व अनकहे तरीकों से व्यक्त करने की कोशिश करते हैं। पुरुषों की चुप्पी उनके शब्दों से ज़्यादा कह जाती है।

पुरुषों की दुनिया ऐसी है जहां जो दिखता है वह होता नहीं है और जो होता है वह दिखता नहीं है।

हैरानी की बात तो यह है कि समाज ने पुरुषों को इतना बेवकूफ बनाया हुआ है कि जब वे अपने आप को इन झूठी मर्दानगी की भूमिकाओं में बांध लेते हैं तो वे उल्टा ताकतवर महसूस करते हैं। पर यह ताकत केवल एक छलावा है।

औरतें अक्सर आदमियों के बारे में उतना ही जान पाती हैं जितना वे कहते हैं। औरतों के मन में आदमियों की वही छवि होती है जो झूठी मर्दानगी के सांचे में ढली होती है।

अन्य नुकसान

इन्हीं भूमिकाओं के चलते पुरुष किसी से 'बराबरी' के संबंध नहीं बना पाते -- ना हीं स्त्रियोँ से और ना हीं पुरुषों से। स्त्रियोँ के साथ अपने संबंध में पुरुष स्त्रियोँ पर हावी होने की कोशिश करते हैं और दूसरे पुरुषों के साथ संबंध में वे या तो उनसे दब कर रहते हैं या उनका शोषण करने की कोशिश करते हैं। पाश्चात्य वातावरण में पुरुष शायद ही कभी दूसरे पुरुष से घनिष्ठ दोस्ती बनाते हों, क्योंकि ऐसे समाज में उन्हें एक दूसरे को प्रतिद्वंदी की तरह देखने के लिये प्रशिक्षित किया जाता है। पर स्त्रियोँ के ऊपर यह दबाव ना होने की वजह से वे ऐसे में भी एक दूसरे के साथ घनिष्ठ व अर्थपूर्ण संबंध बनाती हैं।

ये भूमिकाऐं पुरुषों के जीवन के हर एक पहलू पर बुरा असर डालती हैं -- उनके स्वास्थ्य पर, उनके संबंधों पर और उनकी खुशियों पर।  चूंकि कोई भी पुरुष इन सभी उल जलूल भूमिकाओं को पूरी नहीं कर सकता, आदमी अक्सर कई तरह की हीन भावना के शिकार हो जाते हैं।

पुरुषों की सामाजिक भूमिकाओं से स्त्रियोँ को भी नुकसान होता है। जब तक पुरुष स्वयं बंधनों में बंधे हैं वे कभी भी स्त्रियोँ की मुक्ति या अधिकारों के प्रति संवेदनशील नहीं होंगे। स्त्री मुक्ति आंदोलन के कई वर्षों के प्रयास के बाद यही नतीज़े निकल के आये हैं। जब पुरुष खुद की व्यथाओं के प्रति असंवेदनशील हैं तो उनसे स्त्रियोँ की व्यथाओं के प्रति संवेदनशील रहने की उम्मीद नहीं की जा सकती। उदाहरण के लिये, क्योंकि पुरुष अपनी ही भावनाओं को नहीं पहचान पाते, वे स्त्रियोँ की भावनाओं या चाहतों का भी ख्याल नहीं रख पाते। और, क्योंकि पैसा कमाना आदमी का एक बडा बोझ है, आदमी औरतों के नौकरी करने का विरोध करते हैं, क्योंकि इससे उनकी नौकरियाँ छिन जाती हैं।

 

 

  सामाजिक मर्दानगी की दौड 

जब भी आप चार पुरुषों के बीच जाते हैं तो आपको कैसा लगता है, खासतौर पर अगर वे पुरुष अजनबी हों तो? आप के अंदर एक प्रतिस्पर्धा की भावना आ जाती है। आपके मन में सहज ही यह बात आती है कि इससे पहले कि कोई दूसरा आप पर हावी हो या आप को अपमानित करे, आप उसे नीचा दिखा दें। इस प्रतिस्पर्धा में जो कमजोर पड गया, फिर उसकी कोई इज़्जत नहीं रहती।

इस प्रतिस्पर्धा को हम 'सामाजिक मर्दानगी की दौड कहते हैं। हम सब इस प्रतिस्पर्धा में रात दिन इतना दौडते रहते हैं कि हम अपने आप से भी दूर आ गये हैं। हम इस दौड में आगे से आगे निकल जाना चाहते हैं। इसके लिये अगर हमें दूसरों को रौंद कर जाना पडे तो भी हम परवाह नहीं करते। ऐसे में जो पुरुष दूसरों के लिये संवेदनशीलता दिखाते हैं वे रौंद दिये जाते हैं। हम ऐसे व्यक्ति को 'सीधा' समझते हैं -- यानि जो प्रतिस्पर्धा करने में असक्षम हो। इस प्रतिस्पर्धा ने हमें क्रूर और स्वार्थी बना दिया है। इसने हमें दूसरे पुरुषों के स्नेह से भी वंचित रखा है।

जब भी हम किसी पुरुष से मिलते हैं तो अवचेतन में यह जानने की कोशिश करते हैं कि इस प्रतिस्पर्धा में वह पुरुष हमसे आगे है या पीछे। यानि वह हमसे ज़्यादा मर्द है या कम। अगर वह हमसे ज़्यादा है तो हम उसका आदर करते हैं। और उसके द्वारा अपमान भी सहते हैं। और अगर हम उसे अपने से कम मर्द आंकते हैं तो उसे सम्मान के लायक नहीं समझते और दबा कर रखते हैं।

तो इस मर्दानगी की प्रतिस्र्पधा में हम कहां पहुँचना चाहते हैं। हम उन्हीं मर्दानगी के लक्ष्यों को पाना चाहते हैं जो कि सामाजिक मर्दानगी की भूमिकाओं के लिस्ट में बताई गई हैं। पर जैसा कि हमने देखा यह लक्ष्य कुदरती नहीं हैं बल्कि समाज द्वारा जबरदस्ती थोपे गये हैं। हमने यह भी देखा कि यह सारे लक्ष्य हासिल करना नामुमकिन हैं। और अगर कोई कर पाता तो वह इंसान नहीं हैवान हो जाता। हम बस इनके जितने करीब हो पाये जाने की कोशिश करते हैं। बाकी हम दिखावा करते हैं।